Monday 14 April 2014

गुजरात मॉडल का 'गड़बड़झाला'


राजनीतिक गहमागहमी में देश जब मतदान-केंद्रों की तरफ बढ़ चला है तो ठोस तथ्यों और तर्कों से होने वाले जांच-परख की एक तरह से विदाई हो रही है। और इन पर हावी हो रहा है जन-संपर्क उद्योग का प्रचार-अभियान। अधिनायकवादी चरित्र और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रतिक्रियावादी मूल्यों में अंदर तक धंसे नरेंद्र मोदी, जिन पर 2002 के गुजरात दंगों में मिलीभगत के आरोप उनके आलोचक लगाते रहे हैं लेकिन अब वो एक संकटमोचक बताए जा रहे हैं। ख़ुद भारतीय जनता पार्टी की छवि भी साफ-सुथरा शासन देने वाली पार्टी के रूप में चमकाई जा रही है, यह तथ्य आंखों से ओझल करके कि भ्रष्टाचार के मामले में बीजेपी सबसे आगे है। 

गुजरात की चकाचौंध
ठीक इसी तरह अवसर के अनुकूल गुजरात की छवि भी संवारी गई है। कई मतदाता मतदान-केंद्र तक मन में यह छवि लेकर जाएंगे कि गुजरात, जापान जैसा बन चला है और मोदी के हाथ में बागडोर देने पर पूरे देश के लिए यही संभावना पैदा होगी। मोदी-प्रशंसक कुछ अर्थशास्त्रियों ने विकास के मोर्चे पर गुजरात की चकाचौंध भरी प्रगति की व्याख्या में तर्क पेश किया है कि यह सब निजी उद्यम और आर्थिक-वृद्धि की वजह से हुआ है। बहरहाल, जैसा कि कुछ विद्वानों ने बताया है, वास्तव में गुजरात का विकास अभूतपूर्व होने से अभी कोसों दूर है। कोई गुजरात की यात्रा करे तो वहां की ख़राब सड़कों, कुकुरमुत्ते की तरह फैली फैक्ट्रियों और अनियमित बिजली-आपूर्ति को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकेगा। और वहां के लोगों की जीवन-दशा के बारे में भी सोचिए।
विकास का आधार
हम चाहे गरीबी
, पोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य के मानकों को ध्यान में रखें या फिर इनसे जुड़े अन्य सूचकांकों को, एक सिरे से नतीजा यही निकलेगा कि गुजरात कई मायनों में अखिल भारतीय औसत से थोड़ा आगे है लेकिन इस विकास में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके आधार पर गुजरात को एक मॉडल कहना तार्किक जान पड़े। जिस किसी को इस बात पर संदेह हो, वह हालिया राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, या फिर रघुराजन समिति की रिपोर्ट को डाउनलोड करके स्वयं तथ्यों की पुष्टि कर सकता है। इसके लिए पीएचडी करने की जरूरत नहीं।
इस तर्क की काट में गुजरात मॉडल के पैरोकार कहते हैं कि गुजरात के सामाजिक-सूचकांकों को उसके विकास का आधार बनाना ठीक नहीं, बल्कि यह देखना ज़रूरी है कि समय गुज़रने के साथ गुजरात के सामाजिक-विकास के सूचकांकों में कितना सुधार हुआ है। उनका दावा है कि अन्य राज्यों की तुलना में गुजरात ने तेज़ गति से प्रगति की है और ख़ासतौर पर यह प्रगति मोदी के मुख्यमंत्री रहते हुई है। लेकिन अफसोस कि यह दावा भी झूठा साबित हुआ है। वस्तुतः गुजरात 1980 के दशक में भी अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर कर रहा था।

विकास का रिकॉर्ड

इसके बाद से गुजरात का तुलनात्मक स्थान ज़्यादातर एक जैसा रहा है, यहां तक कि कुछ मामलों में तो नीचे गया है। इस बात को एक उदाहरण के जरिए समझा जा सकता है। गुजरात में शिशु मृत्यु-दर अखिल भारतीय औसत से बहुत अलग नहीं है। प्रति हज़ार जीवित शिशुओं के जन्म पर गुजरात के लिए यह दर 38 शिशुओं का है जबकि अखिल भारतीय औसत 42 शिशुओं का। ऐसा भी नहीं कि शिशु मृत्यु-दर को कम करने के मामले में गुजरात शेष भारत की तुलना में अधिक तेज़ी से प्रगति कर रहा है। बीस साल पहले शिशु मृत्यु-दर के मामले में शेष भारत से गुजरात का अन्तर कहीं ज्यादा बेहतर था। जहां तक अन्य सूचकांकों का सवाल है, तस्वीर कम या अधिक गुजरात के पक्ष में नज़र आती है। कुल मिलाकर, उपलब्ध आंकड़ों से ऐसी कोई स्पष्ट तस्वीर नहीं उभरती कि गुजरात ने अद्वितीय प्रगति हासिल की है। यहां एक और मुद्दा भी है। क्या गुजरात का विकास वास्तव में निजी उद्यम और आर्थिक-वृद्धि पर आधारित है? यह सिर्फ़ कहानी का एक हिस्सा है।

सामाजिक असामनता
यह सब गुजरात के विकास के स्याह पहलू जैसे पर्यावरण के विनाश या फिर राजकीय दमन की बात पर ग़ौर किए बग़ैर होता है। आख़िरी बात यह कि गुजरात एक दिलचस्प पहेली है। पहली यह कि इतने लंबे समय के तेज़ आर्थिक विकास और गवर्नेंस के अपेक्षाकृत उच्च स्तर के बावजूद सामाजिक विकास के निर्देशांक गुजरात में गतिहीन क्यों हैं? शायद इस बात का रिश्ता आर्थिक और सामाजिक असमानता से है, या फिर हो सकता है सामाजिक विकास सूचित करने वाले भारत के आंकड़े ही पुराने पड़ चुके हैं या यह भी हो सकता है कि कारगर सार्वजनिक सेवा प्रदान करने के मामले में गुजरात अपनी पहले वाली प्रतिबद्धता ना दिखा पा रहा हो।
मोदी गुजरात मॉडल को नं-1 बता रहे है पर हकीकत को कुछ और ही है। उसने गुजरात मॉडल को दहशत का मॉडल बना दिया है। नरेंद्र मोदी के पक्ष में सतही प्रचार करने की जगह इस पहेली को सुलझाना दरअसल दिमाग के लिए कहीं ज़्यादा उपयोगी साबित होगा।

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